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प꣡रि꣢ प्रि꣣या꣢ दि꣣वः꣢ क꣣वि꣡र्वया꣢꣯ꣳसि न꣣꣬प्त्यो꣢꣯र्हि꣣तः꣢ । स्वा꣣नै꣡र्या꣢ति क꣣वि꣡क्र꣢तुः ॥४७६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

परि प्रिया दिवः कविर्वयाꣳसि नप्त्योर्हितः । स्वानैर्याति कविक्रतुः ॥४७६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । प्रि꣣या꣢ । दि꣣वः꣢ । क꣣विः꣢ । व꣡याँ꣢꣯सि । न꣣प्त्योः꣢ । हि꣣तः꣢ । स्वा꣣नैः । या꣣ति । कवि꣡क्र꣢तुः । क꣣वि꣢ । क्र꣣तुः ॥४७६॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 476 | (कौथोम) 5 » 2 » 4 » 10 | (रानायाणीय) 5 » 1 » 10


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा-रूप सोम की रस द्वारा व्याप्ति का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(नप्त्योः हितः) द्यावापृथिवी अथवा प्राणापानों का हितकर, (कविः) क्रान्तद्रष्टा, (कविक्रतुः) बुद्धिपूर्ण कर्मोंवाला रसागार सोम परमात्मा (स्वानैः) अभिषुत किये जाते हुए आनन्द-रसों के साथ (दिवः) द्योतमान जीवात्मा के (प्रिया वयांसि) प्रिय मन, बुद्धि आदि लोकों में (परि याति) व्याप्त हो जाता है ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

रसनिधि परमात्मा का दिव्य आनन्द जब आत्मा में व्याप्त होता है, तब आत्मा से सम्बद्ध सब मन, बुद्धि आदि मानो हर्ष से नाच उठते हैं ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा रूप पवमान सोम का तथा उसके आनन्दरस का वर्णन होने से और पूर्व दशति में भी इन्द्र, सूर्य, अग्नि, पवमान आदि नामों से परमात्मा का ही वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में द्वितीयार्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मसोमस्य रसव्याप्तिमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(नप्त्योः हितः) द्यावापृथिव्योः प्राणापानयोर्वा हितकरः (कविः) क्रान्तदर्शनः। कविः क्रान्तदर्शनो भवति, कवतेर्वा। निरु० १२।१२। (कविक्रतुः) मेधाविकर्मा सोमः, रसागारः परमेश्वरः (स्वानैः) अभिषूयमाणैः आनन्दरसैः सह (दिवः) द्योतमानस्य जीवात्मनः (प्रिया वयांसि) प्रियान् लोकान् मनोबुद्ध्यादीन् (परियाति) परिगच्छति, व्याप्नोति ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

रसनिधेः परमात्मनो दिव्यानन्दो यदाऽऽत्मानं व्याप्नोति तदाऽऽत्मसम्बद्धाः सर्वेऽपि मनोबुद्ध्यादयो हर्षेण नृत्यन्तीव ॥१०॥ अत्र परमात्मरूपस्य पवमानसोमस्य तदानन्दरसस्य च वर्णनात्, पूर्वदशत्यामपीन्द्रसूर्याग्निपवमानादिनामभिः परमात्मन एव वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति पञ्चमे प्रपाठके द्वितीयार्धे चतुर्थी दशतिः ॥ इति पञ्चमेऽध्याये प्रथमः खण्डः ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९।१, ऋषिः असितः काश्यपो देवलो वा। ‘सुवानो याति’ इति पाठः। साम० ९३५।